16- बुढ़ी पृथ्वी का दुख
क्या तुमने कभी सुना है। सपनों में चमकती कुल्हाड़ियों के भय से पड़ों की चीत्कार?
कुल्हाड़ियों के वार सहते किसी पेड़ की हिलती टहनियों में दिखाई पड़े हैं तुम्हें बचाव के लिए पुकारते हजारों-हजार हाथ क्या होती हैं, तुम्हारे भीतर धमस कटकर गिरता है जब कोई पेड़ धरती पर?
सुना हैं कभी रात के सन्नाटे में ऑधेरे से मुंह ढाॅप किस कदर रोती है नदियां?
इस घाट अपने कपड़े और मवेशियॉ धोते सोचा है कभी कि उस घाट पी रहा होगा कोई प्यासा पानी या कोई स्त्री चढ़ा रही होगी किसी देवता को अर्घ्य?
कभी महसूस किया कि किस कदर दज्ञलता है मैं समाधि लिये बैठा पहाड़ का सीना
विस्फोट से टुटकर जब छिटकता दुर तक कोई पत्थर?
सुनाई पड़ी है कभी भरी दुपहरिया में हथौड़ों की चोट से टुटकर बिखरते पत्थरों की चीख?
खुन की उल्टियां करते देखा है कभी हवा को, अपने घर के पिछवाड़े?
थोड़ा-सा वक्त चुराकर बतियाया है कभी कभी शिकायत न करनेवाली गुमसुम बुढ़ी पृथ्वी से उसका दुख?
अगर नहीं, तो क्षमा करना!
मुझे तुम्हारे आदमी होने पर संन्देह!!
लेखक :- निर्मला पुतुल
Support Payment Link:-Rs. 50 from To pay instantly click : https://phon.pe/xk4g1bhq
0 टिप्पणियाँ
कृपया गलत मैसेज न करें।